Friday 1 December 2017

संवेदना




आज स्कूल में शिक्षक अभिभावक की मीटिंग का दिन था और चुंकि मैं दसवीं ग्यारहवीं कक्षा को गणित पढ़ाती हूं तो सभी अभिभावकों के कोप का घड़ा मेरे सिर पर फूट रहा था। बच्चों के कम अंक आने का कारण उन सब की नजरों में मैं थी क्योंकि मुझे पढ़ाना नहीं आता, मैं बच्चों पर ध्यान नहीं देती , मैं लापरवाह हूं आदि आदि। मां बाप चीख चीखकर अपनी बात को ऊपर रखने का प्रयास कर रहे थे, कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उत्तर पुस्तिका हाथ में लिए एक एक अंक के लिए ऐसे झींक रहे थे जैसे कयामत आ जाएगी अगर एक अंक भी कम मिल गया तो। कुछ तो इतनी बदतमीजी से बोल रहे थे, फिर बच्चों को क्या इज्जत करना सिखाएंगे। ऐसे बच्चे सिर झुकाए खड़े थे , जानतें थे अगले दिन उनकी शामत आएगी , जितना अभी अभिभावक चिल्लाएंगे अगले दिन उतनी शिक्षिका उनपर अपनी खुन्नस निकालेगी। रिश्तों के सारे समिकरण ही बिगड़ गये हैं।
अपने स्कूल समय की एक शिक्षिका की याद आ रही थी, हिंदी पढ़ाती थी और अगले दिन अपनी चीर परीचित अंदाज और तीखी आवाज में सुना सुना कर बेहाल कर देती थी।
"हमारा तो दिमाग खराब कर देते तुम्हारे मां बाप। अरे खुद तो गधे पैदा कर देते हैं और हमारे सिर पर छोड़ देते हैं , घोड़े बना दो। कोई जादुई छड़ी है हमारे पास जो हम ऐसा कर दें।"
तब हम सब सिर झुकाए मुंह पर रूमाल रखकर बहुत हंसते थे लेकिन आज बिल्कुल हंसी नहीं आ रही थी। सुबह से बनावटी मुस्कान और धैर्य का चोला ओढ़कर अभिभावकों का सामना कर रही थी और एक एक अंग अकड़ रहा था। ध्यान अपने तीन वर्ष के पुत्र बिट्टू में पड़ा था ,रात भर बुखार के कारण बैचेन रहा न खुद सोया नहीं सोने दिया।
सुबह इतनी थकान लग रही थी कि स्कूल आने का मन नहीं कर रहा था, बस एक गिलास दूध पीकर निकल गई। बिट्टू को अपने पति आलोक की देखभाल में छोड़ कर आयी हूं ‌। आधे दिन की छुट्टी ली है उन्होंने, दो बजे तक आफिस जाएंगे।एक बज गए हैं जल्दी से काम निपटा कर पर्स उठाकर निकल ही रही थी कि एक बच्चा प्रधानाचार्य महोदय का संदेश लेकर आया सब स्टाफ को हाल में इक्ट्ठा होना है। छः महीने पहले ही नये प्रधानाचार्य यदुनंदन वर्मा की नियुक्ति हुई है ‌। बड़ी आदर्शवादी बातें करते हैं,जब देखो तब शिक्षकों और शिक्षण संस्थाओं के गौरवशाली परंपरा की बातें करते हैं।इस समय बिल्कुल मन नहीं था इन किताबी बातों को सुनने का , लेकिन मजबूरी वश जाना पड़ा। सब के बैठने के बाद वो शुरू हो गये लेकिन मेरा ध्यान भटक रहा था , बिट्टू का स्वास्थ और समय सीमा दोनों चिंता का कारण बने हुए थे।
संक्षिप्त में उनका कहना था कि," हम सब भाग्यशाली हैं कि हम ऐसे प्रोफेशन से संबंधित है जिसका भारतीय संस्कृति में सर्वोच्च स्थान है ‌। जहां गुरु को परमात्मा के समक्ष खड़ा करके जो गौरव प्रदान किया है हमे उसकी गरीमा का मान रखना चाहिए। हमें अपने क्षात्रो और क्षात्राओं के साथ वैचारिक और भावनात्मक मेल बढ़ाना चाहिए जिससे हम उनकी समस्याओं को समझ कर उनकी मदद कर सकें, बदले में वे हमें वह सम्मान देंगे जिसके हम हकदार हैं।"
अब वर्मा जी को कौन समझाए कि हर कक्षा में पचास साठ बच्चे होते हैं और एक एक बच्चे की समस्याओं को समझने की लिए न समय और न उर्जा होती है शिक्षकों के पास । बिचारा शिक्षक हांड मांस का बना  मानव है कोई काल्पनिक शक्तिमान नहीं जिससे इतनी क्षमता की उम्मीद की जाती है। पहले ही उसके अपने पारिवारिक और शारीरिक जरूरतों के कारण कंधे झुकें होते हैं और बोझ लादने में लगें हैं उस बिचारे पर , कैसे करेगा वह इतना सब ।वर्माजी के पास इसका भी समाधान था।
" बस थोड़ी-सी संवेदना पैदा करनी है आपको अपने दिल में, अपने छात्रों के लिए। ‌फिर देखिए रास्ते अपने आप खुलते चले जाएंगे। उनमें इतना विश्वास जगाएं कि वे अपने आप बेझिझक अपनी समस्या लेकर आपके पास आएं। समस्याएं और परेशानियां पता हो तो हल निकालना मुश्किल नहीं है ‌। इसलिए आवश्यक है कि अपने और छात्रों के बीच संवेदना के सेतु का निर्माण करें ‌।" मन कर रहा था इस समय खड़े होकर एक सलाह मैं भी दूं वर्माजी को ' सर थोड़ी सी संवेदना आप भी पैदा करें अपने अंदर और शिक्षकों का वेतन बढ़ा दें , जिससे उनका कुछ बोझ कम होगा तब शायद वो अपने कर्म पर अधिक ध्यान देंगे।'
वर्माजी का भाषण समाप्त हो गया था सब तितर-बितर हो रहें थे लेकिन उन्होंने मुझे आवाज दी ।यह सब एक जंमाही का किया धरा था अपने आप पर गुस्सा आ रहा था क्यों नहीं मुंह भींच लिया कसकर। अब उनके भाषण की एक ओर खुराक मुझे झेलनी पड़ेगी ‌|
वर्मा जी :" लगता है विभा मैडम आपको मेरी बातें कुछ पसंद नहीं आई।"
मैं :" नहीं सर आप एकदम सही कह रहे हैं। आपसे हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है।"
वर्मा जी :" उम्र के एक पड़ाव पर आकर लगता है हम सारी जिंदगी बेकार की इच्छाओं की पूर्ति करने में लगा देते हैं। अपने जीवन में मैं ने जो महसूस किया वहीं ज्ञान आप सब को बांटना चाहता हूं। मैं ने आपके प्रमाणपत्र देखें थे ,आप बहुत होशियार छात्रा थी ।अगर आप थोड़ी संवेदनशील हो जाती है तो आप इस स्कूल की एक बेहतरीन शिक्षिका होंगी। अच्छा एक बात बताओ क्या आप शिक्षिका इसलिए है कि आप शिक्षिका बनना चाहती थीं या मजबूरी में यह काम करना पड़ रहा है। "
मैं :" (एक और झूठ), " नहीं सर मैं तो हमेशा से ही शिक्षिका बनना चाहतीं थीं,स्कूल समय से ही शिक्षकों को मैं अपना आदर्श मानती…।"
बात और आगे बढ़ती लेकिन वर्मा जी का फोन बजने लगा और वो आगे बढ़ गये।
शिक्षिका बनने का विचार तो जीवन के किसी भी पल में नहीं आया। तीन चार भाई-बहनों के परिवार में शुरू से ही अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते हुए एक सपना जरूर पलने लगा था,ऐसी नौकरी का जिससे पैसा ही पैसा बरसेगा। शुरू से ही अच्छे अंक प्राप्त होते थे,पढ़ाई में होशियार थी , आसपास वाले एकमत थे विभा जीवन में कुछ करके दिखाएंगी।
सपना था इंजीनियरिंग करके किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करूंगी, बहुत पैसा मिलेगा, विदेश आना जाना लगा रहेगा ,एक से एक कपड़े , गाड़ी और न जाने क्या क्या ‌। ऐसे ही साथ के किसी स्मार्ट से बंदे से विवाह करूंगी ,बस जीवन में और क्या चाहिए। बहुत मेहनत की रात दिन एक कर दिये , लेकिन किसी अच्छी सरकारी संस्था में चयन नहीं हुआ। इस असफलता ने इतनी कटुता भर दी,सारे जहां से शिकायत हो गई । लगा पिता जी ने थोड़ा पैसा बचाया होता तो कोचिंग और ट्युशन लेती , फिर कैसे नहीं होता। शिक्षा नीति, सरकार ,आरक्षण , मेरी किस्मत सब दोषी थे मेरी नज़रों में। फिर बस जिस कालेज में दाखिला मिला पढ़ती गई और शिक्षिका की नौकरी लग गई।
साधारण सी नौकरी और सामान्य सी शक्ल सूरत वाले आलोक से विवाह तो हो गया लेकिन उससे दिल से कभी नहीं जुड़ सकीं। कहीं न कहीं जिंदगी ठहर सी गई,बस बिना उत्साह के ढो रही थी ,खुशी की कोई लहर नजर नहीं आती थी। जब बिट्टू पैदा हुआ तब जीवन में कुछ अच्छा लगने लगा। आलोक सीधे ,शांत स्वभाव के इंसान हैं , वैसे कोई कमी नहीं है उनमें, बस मैं ही अपने ख्वाबों से नहीं निकल पा रही हूं। जब चाबी से दरवाज़ा खोला तो ढ़ाई बजे थे । हमेशा की तरह आलोक बिट्टू को गोद में लेकर बैठें होंगे और मेरे पहुंचते ही  उसे मुझे थमा कर चुपचाप आफिस चले जाएंगे। किसी भी बात पर गुस्सा करना या टोकना तो वो जानते ही नहीं थे। लेकिन घर में बिल्कुल सन्नाटा था ,न कोई बल्ब जल रहा था न कोई पंखा चला रहा था। मैं घबरा गई , बिट्टू की तबीयत अधिक खराब हो गई होगी और उसे अस्पताल ले कर गए होंगे। लेकिन टेबल पर एक कागज रखा देखा , उठाया तो मेरे लिए संदेश था , कोई संबोधन भी नहीं था।
मैं बिट्टू को लेकर अपने मां पिताजी के घर जा रहा हूं। मैं जानता हूं मैं तुम्हारी पति की छवि के मापदंड में खरा नहीं उतरता हूं। लेकिन इसमें मेरा कोई दोष नहीं है । मैं पिछले पांच साल से तुम्हारी बेरूखी बर्दाश्त कर रहा हूं  अब और नहीं सहन होता है। बिट्टू से जब मिलना हो यहां आकर मिल लेना।
मुझे विश्वास नहीं हुआ आलोक ऐसा कैसे कर सकते हैं लेकिन मैं इतना थकी हुई थी मानसिक और शारीरिक रूप से कि बस पलंग पर लेट गई और सो गई। इतनी भी ताकत नहीं थी रसोई में जाकर कुछ खा लेती या कपड़े बदल कर तरोताजा हो जाती। जब आंख खुली तो आठ बज रहे थे, चारों तरह अंधेरा था ठंडक और अकेला पन था।
उठकर बत्तियां जलाईं फिर रसोई में जाकर दूध और ब्रेड़ खाकर , खिड़की के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। घंटों बाहर अंधेरे में शुन्य को ताकती रही,न कुछ सोच पा रही थी न कुछ काम करा जा रहा था। ऐसा लग रहा था आलोक मेरी बेरूखी से जितना थक गए था उससे अधिक मैं अपनी उदासीनता से हार गई थी। पता नहीं कब पलंग पर लेट गई और अगले दिन भी लगभग सोती रही। रविवार था , छुट्टी थी फिर भी न जाने क्यों बिट्टू से मिलने नहीं गई जिसमें मेरी जान बसती थी।
जब भी इंसान की जिंदगी में कोई घटना या दुर्घटना घटित होती है जिससे उसका अस्तित्व डगमगा जाता है तब वह पांच चरणों से होकर गुजरता है। सबसे पहले उसे धक्का लगता है कि यह क्या हो गया है। मुझे अभी तक विश्वास नहीं हो रहा था ऐसे कैसे आलोक और बिट्टू मेरी जिन्दगी से अलग हो गए और इसका मेरे जीवन पर क्या असर होगा। बिट्टू के बिना कैसे रहुंगी और आलोक की खामोश उपस्थिति कितना बड़ा सहारा थी मेरे लिए यह आज उनकी अनुपस्थिति में समझ आ रहा था। आखिर उन्होंने ऐसा किया क्यों ,एक दम से इतना बड़ा कदम कैसे उठा लिया, पहले कभी अपनी नाराज़गी प्रकट नहीं की। मेरे दिमाग में इस तरह के विचारों की उथल-पुथल चलती रही और अगले दिन मैं स्कूल चली गई। स्कूल में मन नहीं लग रहा था और मेरा सबसे पसंदीदा छात्र आदित्य भी नहीं आया था।
आदित्य को मैंने दसवीं कक्षा में पढ़ाया था और अब मैं उसकी कक्षा शिक्षिका हूं। इतना होशीयार बच्चा कि एक बार में उसको पाठ समझ आ जाता था और कईं बार कमजोर बच्चों को भी समझा देता था जब मैं झुंझला जाती थी। मेरे सारे काम भाग भाग कर करता , कभी रजिस्टर लाना तो कभी कापियां।
हमेशा मुस्कुराता रहता और उसमें मुझे अपना बचपन नज़र आता । मैं चाहती थी कि मैं उसकी सहायता करूं और वह जीवन में सफल हो अपने सपने पूरे करें। आज न जाने क्यों मुझे उसकी अनुपस्थिति बहुत अखर रही थी। उसके घर के पास रहने वाले एक छात्र से मैंने पूछा आदित्य क्यों नहीं आया तो उसने जो उत्तर दिया कुछ समझ आया कुछ नहीं। छात्र :" उसका एक्सीडेंट हो गया है और वह अस्पताल में भर्ती है।"
 मैं (सुनकर मेरी आवाज़ कुछ तीखी हो गई) " क्या, क्या कह रहे हो।"
वह बच्चा घबरा गया ,हकलाता हुआ बोला :" मैडम उसको बहुत चोट आई है,पैर काट… ।"
मैं (बीच में ही बोल पड़ी):" क्या बकवास कर रहे हो,हाथ पैर में फ्रेक्चर हुआ होगा।"
वह लगभग रोते हुए हां में हां मिलाते हुए बैठ गया।स्टाफ रूम में सब टीचर कहते हैं " विभा मैडम आप इतनी कड़क और रोबदार आवाज में बोलती हो कक्षा में कोई भी बच्चा चूं तक नहीं कर सकता।" कक्षा में अनुशासन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है। मैंने आफिस से आदित्य के पिताजी का फोन नं लिया और उस अस्पताल का पता किया जहां उसका इलाज चल रहा था ‌
अस्पताल में आदित्य की माताजी चित्रा अपनी बहन के साथ आईसीयू के वेटिंग रूम में बैठी थी , आंखें सूजी हुई थी। मुझे देखते ही वह जोर जोर से रोने लगी, मुझे लग रहा था बिचारी इतना बड़ा सदमा कैसे बर्दाश्त करेंगी।
वह बोल रही थी:" विश्वास नहीं होता एकदम से ऐसा कैसे हो गया,शिक्षक दिवस आने वाला है आपके लिए कुछ तोहफा खरीदने जा रहा था, अपने पापा के साथ स्कूटर पर। इतना खुश था ,न जाने अचानक क्या हुआ आगे वाली गाड़ी ने ब्रेक लगाया,आदी के पापा सम्भालते इससे पहले पीछे से तेज गति से आती गाड़ी ने टक्कर मारी ‌। इतने जोर से धक्का लगा कि आदी उछल कर सड़क गिर गया। एक दो गाड़ियां उसके पैरों पर से गुजर गयीं। एक टांग तो डाक्टर ने कहा बच जाएगी लेकिन एक को काटना पड़ा। "
सुनकर मैं सकते में आ गई, इतना छोटा बच्चा और इतना बड़ा हादसा। मैं और चित्रा बहुत देर तक रोते रहे , इसमें शायद मेरे दुख का रोना भी शामिल था। शाम तक वहीं बैठी रही ,लौटी तो शरीर शिथिल हो रहा था ‌। वहां सब दुखी थे इसलिए दुख सांझा लग रहा था, लेकिन घर में अकेली थी तो बहुत बेबस महसूस कर रही थी।
इंसान जब समझ जाता है कि जो घटित हुआ है वही शाश्वत है तो सदमे से निकल कर वह अपने आप को धिक्कारने लगता है। अब मुझे लग रहा था आज आलोक मेरी जिन्दगी से चले गए हैं तो सारी गलती मेरी हैं।
जिंदगी को मजाक समझ रही थी कभी गंभीरता से सोचा नहीं मेरी उदासीनता का आलोक पर क्या असर पड़ रहा था । उनसे एक दूरी सी बना कर रखीं,उनका कभी ध्यान नहीं रखा। और कोई होता तो लड़ता झगड़ता, अपनी बात मनवाता, जबरदस्ती अपने हिसाब से चलाता लेकिन आलोक तो बिचारे इंतजार करते रहे। वर्मा जी सही कह रहे थे स्कूल में भी कठोरता को ढाल बनाकर बच्चों को अपने करीब नहीं आने दिया।पाठ तीन बार समझाया, जिससे साठ प्रतिशत बच्चे समझ गये और मैं आगे बढ़ गई। बाकी बच्चों की जिम्मेदारी लेना मैंने आवश्यक नहीं समझा। सारी रात अपने आप को धिक्कारने में बिता दी। अगले दिन फिर स्कूल से अस्पताल पहुंच गईं। आज आदित्य से मिलने की इजाजत दे दी थी डॉक्टर ने। इतनी सारी मशीनों और ट्यूबों में वह नज़र नहीं आ रहा था,उसको देखकर मेरी आंखें भर आईं।
बाहर चित्रा रोती जा रही थी और अपने आप को कोस रही थी।
"पता नहीं क्या पाप किया था मैंने जो यह दिन देखने को मिला। आदी के पापा के साथ मैं जा रही थी बाजार,न जाने क्या सोच कर आदी को भेज दिया। मैं होती और भगवान दोनों टांगें ले लेता तो भी उफ नहीं करती। पर मेरे मासूम बच्चे ने किसी का क्या बिगाड़ा था जो उसके साथ ऐसा किया। किसको दोष दूं इस हादसे के लिए किसकी गलती थी जो मेरे बच्चे की जिंदगी बर्बाद हो गई। " चित्रा की बातें सुनकर मेरे भी आंसू बहने लगे। मैं सोच में पड़ गई मेरे से एक मौका छिन गया और मैंने सारे जहां को कोस लिया  सबको दोषी मान लिया।इस बच्चे का तो शरीर का एक अंग छिन गया और न जाने आगे क्या क्या तकलीफें सहनी पड़ेगी। वह किसको गुनहगार माने अपनी इस तकलीफ के लिए। आज बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी अपने आप पर, जैसे पानी कहीं इकट्ठा हो जाता है सड़ांध पैदा करता है अपना जीवन भी ऐसा लग रहा था ठहरा हुआ बदबूदार। चित्रा के आगे अपने आप को इतना बौना महसूस कर रही थी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई चुपचाप निकल गई वहां से।
रात भर उल्टे-सीधे सपने आते रहे। बिट्टू भागता हुआ आ रहा है मैं उसे गोदी में लेने के लिए बांहें फैलाएं खड़ी हूं अचानक वह गिर गया उसका एक पैर नही है। मैं भागी उसे उठाने के लिए , रोते हुए उसे गोदी लिया तो देखा वह बिट्टू नहीं आदी हैं।इस बात से मुझे कोई राहत नहीं मिली, मैंने उसे सीने से लगा लिया फिर देखा तो अब वह बिट्टू था। मेरे लिए दोनों बच्चे एक हो गए थे अपने पराये का भेद नहीं रहा था। रात भर दुखी होती रही कभी बिट्टू को याद करके तो कभी आदी की तकलीफ़ महसूस करके। मैं तीसरे दौर से गुजर रही थी जब इंसान इतना दुखी हो जाता है कि शरीर भी थक कर जवाब दे देता है, खाना-पीना बस नाम का रह जाता है,सुध ही नहीं रहती किसी बात की।
अगले दिन स्कूल भी नहीं गई, सुबह अस्पताल चली गई। आदी के पापा चित्रा को नाश्ता खिलाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन वह हाथ पर सिर टिका कर निढाल सी बैठी थी ‌। आदी के पापा को बस कुछ खरोचें आईं थीं, मुझे देखते ही बोले ," देखिए क्या हाल कर लिया है इसने। इसको संभालूं ,उधर घर पर बिटिया को छोड़कर आता हूं उसकी चिंता करूं या अस्पताल की भागदौड़ करूं, कैसे इतना सबकुछ देखूं समझ नहीं आता।"
तीन दिन में रिश्तेदारों और हितेषियों की छंटनी हो गई थी,अब अकेले जूझ रहे थे दोनों अपनी परेशानी से। मुझे देख कर चित्रा फफक-फफक कर रो पड़ी फिर मेरा हाथ पकड़ कर मेरे कंधे पर सिर टिका कर खामोश बैठे गई। मेरे पास शब्द नहीं थे उसको सांत्वना देने के लिए, खोखले लग रहें थे,क्या कहुं सब ठीक हो जाएगा, पहले जैसा हो जाएगा।हम दोनों के बीच एक गहरा रिश्ता जुड़ गया था ' दुख' का ,जिसका कोई पता नहीं होता है , इसमें कुछ तेरा या मेरा नहीं था ‌।
शायद वर्माजी इस स्थिति के बारे में ही बात कर रहे थे,जब इंसान दूसरे की तकलीफ़ को महसूस कर सकें केवल अपनी ही परेशानी की चादर को ओढ़ कर न बैठा रहे,वह निजी संपत्ति न बन जाए कि बांटी भी न जा सके। थोड़ी देर बाद चित्रा फिर रोने लगी," कितना छोटा है कैसे काटेगा इतनी लंबी जिंदगी , अभी भोगा ही क्या है बिचारे ने। कितने सपने देखे थे उसके लिए, कैसे खुश हो कर भागता फिरता था, भगवान ने पंख ही काट दिया। "
धीरे धीरे उसका दुख गुस्से में बदलता जा रहा था।
"आज तक किसी को कभी तकलीफ नहीं दी , फिर नियती ने इतना बड़ा दुख सारी उम्र के लिए दे दिया। पता नहीं परमात्मा है भी की नहीं,आज के बाद मंदिर भी नहीं जाऊंगी कभी,जब उसने रक्षा  की ही नहीं तो क्यों पूजा करूं उसकी।वो गाड़ी वाला मेरे बच्चे की जिंदगी खराब करके मज़े से घूम रहा है, कीड़े पड़ेंगे उसके शरीर में…।" और भी न जाने वह क्या क्या बोलती रही। मुझे भी आलोक पर गुस्सा आ रहा था , एक बार भी फोन नहीं किया यह बताने के लिए बिट्टू कैसा है। अगर मुझसे तकलीफ थी तो एक बार बताते तो अगर मैं ध्यान नहीं देती तब मेरी गलती थी। मुझे क्या सपने आ रहे थे मेरे व्यवहार से किसको क्या परेशानी हो रही है।आज ही जाऊंगी और बिट्टू को जबरदस्ती अपने साथ लेकर आऊंगी,अब वह मेरे साथ रहेगा। आलोक को कोई हक नहीं है मां बेटे को अलग करने का।
आदी कमरे में आ गया था और मैं और चित्रा उसके पास बैठें थे । वह चुपचाप उदास लेटा हुआ था ,एक तरफ से मैंने और दूसरी तरफ से चित्रा ने उसका हाथ पकड़ रखा था ‌ तभी नर्स उसका खाना लेकर आई लेकिन उसने मुंह फेर लिया ‌, उसके लिए भी अपनी स्थिति को स्वीकारना मुश्किल हो रहा था।चित्रा रूआंसी होकर बोली ," कुछ तो खाले बेटा ताकत कहां से आयेगी।नर्स बड़ी हंसमुख और खुशमिजाज थी बोली," मेरा राजा बेटा मेरे हाथ से खाएगा, उसे अपनी नर्स आंटी बहुत अच्छी लगती हैं।"
मैं और चित्रा एक तरफ बैठ गये, चित्रा की आंखें भरी हुई थी लेकिन चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे। " कम से कम मेरा बेटा मेरे पास है अगर इसको कुछ हो जाता, परमात्मा इसको अपने पास बुला लेता तो मैं क्या करती। मैं हिम्मत से काम लूंगी, मिल कर हम सब स्थिती का सामना करेंगे , धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। मैं अपने बेटे की हिम्मत बनूंगी,इस संसार में हमसे भी ज्यादा दुखी और परेशान लोग हैं, वे भी तो जीते हैं।मेरा बेटा मेरे पास है यही बहुत है मेरे लिए।" वह बहुत देर तक अपने आप को समझाती रही, बेटा को अपने समीप देखकर उसने स्थिती को स्विकार लिया था।
वापस घर लौटते वक़्त मन बहुत शांत और हल्का लग रहा था। रास्ते में ही एक रेस्टोरेंट में बैठ कर डोसा खाया। आलोक और बिट्टू कहीं भी है सही सलामत है यह सब से बड़ी बात है। अगले दिन शिक्षक दिवस कार्यक्रम है,दो ढ़ाई घंटे लगेंगे, उसके बाद आलोक और बिट्टू से मिलूंगी। बहुत दिनों बाद आज निश्चिंतता के साथ नींद ली।
अगले दिन स्कूल में बहुत चहल-पहल थी, चारों तरफ बच्चें ही बच्चें नज़र आ रहे थे ,अति उत्साहित, उछलते कूदते शोर मचाते।आज मुझे उनका भागना दौड़ना, चीखना चिल्लाना बहुत सुखद लग रहा था।बस आदी की अनुपस्थिति अखर रही थी, लेकिन मैंने प्रण किया था मैं चित्रा के साथ मिलकर उसे इतना सक्षम बनाऊंगी कि वह भी इन बच्चों के साथ खड़ा होगा। यहां से निकल कर मैं सीधे अपने परिवार के पास जाऊंगी , मेरी गलती थी इसलिए आलोक से माफी मांगूंगी और अपने बिट्टू को ढेर सारा प्यार करूंगी। मैं जानती हूं आलोक मुझे अवश्य माफ़ कर देंगे,प्रेम ही इतना करते हैं ,तभी तो पांच साल कुछ नहीं कहा। आंखों में हमेशा प्रेम देखती थी लेकिन अनजान बनी रहती थी अब ऐसा नहीं होगा। आज बहुत स्वतंत्र महसूस कर रही थी,न जाने कौन-कौन सी बेड़ियों में अपने आप को जकड़ रखा था।

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